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छूटा हुआ बचपन – भाग 2

ज़िंदगी कभी-कभी टूटे हुए सपनों को भी नए रंग दे देती है — अगर कोई उन्हें अपने हाथों से दोबारा जोड़ने का हौसला करे।

गुड़िया, जो कभी बस अड्डे की धूल में बिखरी ज़िंदगी थी, अब एक प्रेरणा बन चुकी थी। उसने वो सब पाया, जो कभी सिर्फ दूसरों की कहानियों में सुना था।


लेकिन सबसे बड़ी बात — अब वो सिर्फ अपने लिए नहीं, औरों के लिए जी रही थी।

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आश्रय गृह में रहते हुए गुड़िया को पढ़ने, समझने और सिखाने में आनंद आने लगा था। अब वह एक वयस्क बन चुकी थी — 19 वर्ष की उम्र में उसकी सोच किसी अनुभवशील स्त्री जैसी थी। उसने ठान लिया था कि अब उसे वही बनना है, जो कभी उसे नहीं मिला —

एक शिक्षक,

एक मार्गदर्शक,

एक माँ जैसी मौजूदगी।

जब सब लड़कियाँ 12वीं के बाद सरकारी नौकरी के फॉर्म भरने में लगी थीं,

गुड़िया ने एक निर्णय लिया —मैं अपने जैसे बच्चों के लिए एक स्कूल खोलूंगी।

लोगों ने कहा —इतना पैसा कहाँ से आएगा? तुम तो खुद किसी की मदद से बड़ी हुई हो! स्कूल चलाना खेल नहीं है।

पर गुड़िया मुस्कराकर कहती, अगर मैं पढ़ सकती हूँ, तो पढ़ा भी सकती हूँ — और पढ़ा कर भी सकती हूँ!

गुड़िया ने अपने मिशन की शुरुआत वहीं से की, जहाँ से उसकी ज़िंदगी बदली थी —बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, मंदिर के बाहर, फुटपाथ।

वो हर दिन बच्चों से मिलती — जो भीख मांगते, जूते पॉलिश करते, सब्ज़ी उठाते।

वो उनसे कहती, मैं पढ़ना सिखा सकती हूँ, खाना भी मिलेगा, और खेलने का समय भी...

शुरुआत में बच्चे हँसते, शरमाते, मना कर देते। क्योंकि उनके लिए स्कूल एक सपना नहीं, डर था। लेकिन धीरे-धीरे, कुछ बच्चों ने उसे फॉलो करना शुरू कर दिया। एक टूटी बिल्डिंग में उसने एक छोटा सा टीन शेड तैयार किया —चार ईंटें, फर्श पर चटाई, और दीवार पर खुद का बनाया गया ब्लैकबोर्ड।

गुड़िया के जीवन में अगर कोई सबसे बड़ा प्रभाव था, तो वो थीं — सरला दीदी। अब वो इस दुनिया में नहीं थीं। पिछले साल उनका देहांत हो गया था। लेकिन गुड़िया आज भी जब बोर्ड पर कुछ लिखती, तो जैसे उनके हाथ की छाया महसूस करती।

उसने स्कूल का नाम रखा: सरला शिक्षालय — ज़िंदगी को पढ़ना सिखाता है"

जब समाज को पता चला कि एक अनाथ लड़की अपने बलबूते स्कूल चला रही है,

किसी ने उसे हीरोइन कहा,

किसी ने ड्रामेबाज़,

तो किसी ने चुपचाप सराहा लेकिन मदद नहीं की।

शुरुआती महीनों में बहुत दिक्कतें आईं —पानी नहीं था, पंखा नहीं था, किताबें नहीं थीं।

गुड़िया ने पुराने स्कूलों से संपर्क किया, पुरानी किताबें मांगी, टूटे बेंच जोड़े, खुद पुराने अखबारों से चार्ट बनाना सीखा

एक दिन गुड़िया को एक चिट्ठी मिली —

एक 7 साल की लड़की की handwriting में लिखा था: दीदी, आप जैसी होती हैं वैसी माँ होती है क्या? अगर हाँ, तो आप मेरी माँ हैं न?

गुड़िया ने वो चिट्ठी अपने दिल के सबसे करीब रखा। उसे लगा —अब उसके पास माँ नहीं, बल्कि माँ बनने का सौभाग्य है।

3 साल की कड़ी मेहनत के बाद,

गुड़िया के स्कूल में अब 60 से ज़्यादा बच्चे आने लगे थे। कुछ दैनिक मजदूरों के बच्चे थे, कुछ स्ट्रीट चिल्ड्रन, कुछ बचाए गए बाल श्रमिक। अब तक एक स्थानीय NGO ने भी सपोर्ट करना शुरू कर दिया था।

एक दिन जिला अधिकारी खुद स्कूल देखने आए।

उन्होंने कहा: गुड़िया जी, आपने तो समाज को आइना दिखा दिया। हम इसे पंजीकृत स्कूल बनाना चाहते हैं।

उस दिन गुड़िया ने सरला दीदी की तस्वीर के आगे मोमबत्ती जलाते हुए कहा:

"दीदी, देखो — आपकी गुड़िया अब ‘मिस गुड़िया’ बन गई है।"

अब गुड़िया ना सिर्फ पढ़ाती थी, बल्कि हर बच्चे की कहानी सुनती भी थी।

कोई कहता —पापा शराबी हैं।

कोई कहता —मम्मी मुझे मारती है।

कोई कहता —मैं घर से भाग आया हूँ..

गुड़िया हर बच्चे की कहानी में खुद को देखती, हर दर्द में अपना अतीत ढूंढती, और हर आंसू को पोंछने की कोशिश करती।

अब वो सिर्फ शिक्षक नहीं थी —वो मनोवैज्ञानिक थी, मार्गदर्शक थी, दोस्त थी, और सबसे बढ़कर — एक ‘माँ’ थी।

गुड़िया की कहानी अब किसी गली के कोने में नहीं दबी थी। अब वो अखबारों में छपती थी, रेडियो में सुनाई जाती थी, बच्चों की किताबों में मिसाल बन चुकी थी।

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तटीय गांव करेली में लोग हर सुबह मछली पकड़ने के लिए समुद्र किनारे जाते थे। लेकिन उस दिन कुछ अलग था। रातभर समुद्र में भयानक तूफान आया था और सुबह जब गाँव वाले तट पर पहुँचे, तो उन्होंने जो देखा, उस पर यकीन कर पाना मुश्किल"

लेकिन वो आज भी वही थी —सादी सूती साड़ी, बालों में चुटिया, और माथे पर हल्की सी बिंदी।

जब उससे पूछा गया —अब आप क्या बनना चाहती हैं?

वो बोली: अब मैं कुछ नहीं बनना चाहती, अब मैं दूसरों को ‘कुछ’ बनाना चाहती हूँ।

कहते हैं, जो लोग बहुत टूटते हैं, वही सबसे सुंदर रूप से जुड़ते हैं —गुड़िया अब केवल एक नाम नहीं थी, वह एक आवाज़ थी — उन बच्चों की जो चुप थे, वह एक चिन्गारी थी — उन सपनों की जो बुझा दिए गए थे।

यह कहानी है उस बच्ची की, जिसे माँ-बाप ने छोड़ दिया था,

और जिसने एक पूरी पीढ़ी को संभालना सीख लिया।

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जब सरला शिक्षालय का तीसरा साल पूरा हुआ, तो गुड़िया ने अब एक बड़ा सपना देखा —देश भर के ऐसे बच्चों के लिए काम करना, जिनका कोई नहीं है।

एक स्थानीय पत्रकार ने जब उसकी कहानी को अख़बार में छापा, तो इंटरनेट पर वह वायरल हो गई। NGOs, सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया — सबकी नज़रें उस पर टिकीं।

लोग अब पूछते थे —कौन है ये गुड़िया?

और जवाब आता —एक भूली हुई बच्ची, जो अब सबकी माँ बन चुकी है।

एक दिन उसे दिल्ली से कॉल आया ––मानव अधिकार मंत्रालय द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में विशेष वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया है।

गुड़िया हिचकिचाई — उसने कभी प्लेन नहीं देखा था, न ही किसी मंच पर बोला था।

लेकिन उसके स्कूल की एक छात्रा, कविता, ने उसका हाथ पकड़कर कहा —दीदी, जब आपने हमें बोलना सिखाया, तो अब आपकी बारी है

दिल्ली पहुँचने पर उसकी सादगी सबका ध्यान खींचती रही।जहाँ बाकी वक्ता बड़े-बड़े कोट पहनकर आए थे, गुड़िया सादी सूती साड़ी में, हल्की मुस्कान के साथ मंच पर पहुँची। माइक पर पहली बार बोलते हुए उसकी आवाज़ थोड़ी कांपी, लेकिन फिर उसकी आत्मा बोल उठी।

"मैं कोई महान व्यक्ति नहीं हूँ। मैं वही बच्ची हूँ जो स्टेशन पर बैठकर बचपन ढूंढती थी। पर किसी ने मुझे देखा, सुना और समझा। अब मैं उन बच्चों के लिए जीती हूँ, जिन्हें कोई नहीं देखता..."

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।

इस कार्यक्रम के बाद राष्ट्रपति भवन से उसे निमंत्रण मिला —बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" अभियान में ब्रांड एम्बेसडर बनने के लिए।

वो दिन ऐतिहासिक था —जब एक अनाथ बच्ची, जिसे समाज ने कभी अपनाया नहीं, अब राष्ट्र की प्रेरणा बन चुकी थी राष्ट्रपति ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा:

"गुड़िया, तुम अब सिर्फ एक नाम नहीं, एक आंदोलन हो।"

अब 'गुड़िया फाउंडेशन' के तहत देश के कई राज्यों में छोटे-छोटे शिक्षा केंद्र खुलने लगे। इन केंद्रों में सड़कों पर रहने वाले बच्चों को पढ़ाया जाता, खिलाया जाता, और जीवन जीने की कला सिखाई जाती। गुड़िया ने इन बच्चों के लिए एक नया पाठ्यक्रम बनवाया —

जिसमें विषय थे:

ज़िंदगी की भाषा

भावनाओं की गणित

सम्मान का भूगोल

सपनों का विज्ञान

यह शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं थी —यह जीने की प्रेरणा थी।

एक दिन वह अकेले उसी स्टेशन पर पहुंची जहाँ उसे माँ-बाप ने छोड़ा था। वो कोना अब साफ था, वहाँ एक बोर्ड लगा था: इस जगह से शुरू हुई एक कहानी — जो अब हज़ारों ज़िंदगी बदल रही है।

— स्मृति चिन्ह: गुड़िया फाउंडेशन

गुड़िया ने आंखें बंद कीं —उस दिन की आवाजें, भीड़, डर, भूख — सब याद आया। पर अब उसकी आंखों में आँसू नहीं थे —सिर्फ आभार था।

जीवन में जब उद्देश्य इतना बड़ा हो, तो व्यक्तिगत भावनाएं अक्सर पीछे छूट जाती हैं। लेकिन एक सामाजिक सम्मेलन में उसकी मुलाकात एक युवा डॉक्टर से हुई —

डॉ. युवराज मेहता, जो बेसहारा बच्चों का मुफ्त इलाज करते थे।

गुड़िया और युवराज की बातचीत में गहराई थी —दोनों ने ज़िंदगी को बहुत करीब से देखा था। धीरे-धीरे यह रिश्ता सम्मान, समझ और सेवा पर आधारित एक गहरे बंधन में बदल गया। कुछ महीनों बाद उन्होंने एक सादा समारोह में विवाह कर लिया —

जहाँ गवाह बने थे —60 अनाथ बच्चे और 6 वृद्धाश्रम की महिलाएँ।

कुछ वर्ष बाद, जब उनके घर एक बेटी ने जन्म लिया, तो गुड़िया ने उसका नाम रखा — सरला।

जब किसी पत्रकार ने पूछा: आपने अपनी बेटी का नाम अपनी गुरु के नाम पर क्यों रखा?

गुड़िया ने उत्तर दिया: क्योंकि माँ वो नहीं होती जो जन्म दे, माँ वो होती है जो उठाए, सँभाले, और ज़िंदगी देना सिखाए। मैं भी अब वही करना चाहती हूँ — हर बच्ची को, हर गुड़िया को ‘सरला’ बना सकूँ।

अब गुड़िया राष्ट्रीय योजनाओं की सलाहकार समिति में थीं।उन्होंने बालिका शिक्षा, बाल श्रम, और बाल तस्करी जैसे मुद्दों पर कई नीतियाँ सुझाईं।

उनकी आवाज़ अब संसद में भी गूंजती थी। लेकिन जब भी कोई उनसे पूछता —अब आप कौन हैं?

तो वह केवल मुस्कराकर कहतीं —मैं अब भी एक बच्ची हूँ, जो दूसरों को बड़ा होते देखना चाहती है।

उपसंहार: "एक नाम, एक आंदोलन"

गुड़िया की कहानी अब किताबों में दर्ज है। उसके नाम पर स्कॉलरशिप, पुरस्कार, और संस्थाएँ बनी हैं।

पर असली क्रांति तब होती है जब कोई बच्ची स्टेशन पर रोते हुए सोचती है —क्या मेरी ज़िंदगी भी बदल सकती है?

और तभी कोई कहता है । हाँ, क्योंकि एक गुड़िया थी — जिसने हार नहीं मानी..."

लेखक की बात:


"छूटा हुआ बचपन" अब एक पूर्ण गाथा बन चुकी है।

यह सिर्फ एक लड़की की नहीं, बल्कि हर उस आत्मा की कहानी है जिसे ज़िंदगी ने ठुकराया, पर उसने खुद को गले लगाना सीख लिया।

गुड़िया अब सिर्फ एक इंसान नहीं, वो एक विचार है —कि कोई भी कितना भी टूटा हो,

अगर उसे थोड़ा प्यार मिल जाए, तो वह पूरी दुनिया को बदल सकता है।

आपसे सवाल:


क्या आपने कभी किसी को उठाने की कोशिश की है?

क्या आप किसी की ज़िंदगी में 'गुड़िया' बनना चाहेंगे?


कमेंट में ज़रूर बताइए — और यह कहानी उन सभी के साथ साझा करें जो ‘कभी छूटे थे’ लेकिन अब उड़ना चाहते हैं।

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