छूटा हुआ बचपन – भाग 1

शहर की भीड़ में कुछ चेहरे ऐसे भी होते हैं, जो शोर में भी खामोशी से अपनी कहानी कह जाते हैं। ऐसे ही एक शहर के बस स्टैंड पर एक छोटी सी बच्ची की आँखों में कई सवाल तैर रहे थे। वो मुश्किल से आठ साल की रही होगी - लेकिन उसकी आँखों में मासूमियत से ज़्यादा एक अधूरी तलाश थी।

उसका नाम गुड़िया भले ही न रहा हो, लेकिन सब उसे इसी नाम से जानते थे—क्योंकि वह न तो स्कूल गई थी और न ही उसका नाम किसी सरकारी दस्तावेज़ में दर्ज था


छूटा हुआ बचपन – भाग 1


सुबह हो चुकी थी। सड़कों पर चाय की दुकानों से भाप उठ रही थी और लोग अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त थे। लेकिन उस चाय की दुकान के कोने में, एक पतली चादर ओढ़े, एक छोटी बच्ची दुनिया को गुज़रते हुए देख रही थी। कभी कोई उसे एक सिक्का देता और वो पानी भरने के लिए बगल वाले नल पर दौड़ जाती। कभी कोई उसके बैग में बिस्किट डाल देता और वो आधा खुद खा लेती और आधा किसी कुत्ते को दे देती।

वो एक साया बन गई थी - मौजूद तो थी, पर किसी की दुनिया का हिस्सा नहीं। लोग कहते हैं कोई उसे बस स्टैंड पर छोड़ गया था। एक बुज़ुर्ग ने बताया कि वो दो साल पहले आई थी। कुछ लोगों ने उसे देखा था - एक औरत और एक मर्द, जो जल्दी से उसे उतारकर चले गए।

गुड़िया ने कभी अपने माँ-बाप के बारे में कुछ नहीं कहा। उसने कभी किसी से शिकायत नहीं की। उसके लिए ‘माँ’ और ‘बाप’ दो शब्द थे — जो किताबों में होते हैं, या दूसरों की दुनिया में।गुड़िया को अक्सर देखा जाता — कभी बस की कतारों में, कभी मंदिर के बाहर, तो कभी सब्ज़ी मंडी में सब्ज़ियों के ढेर से कुछ बासी टमाटर उठाते हुए।

एक बार एक औरत ने उससे पूछा, "बच्ची, तेरा कोई नहीं है क्या?"

गुड़िया ने मुस्कुराकर कहा, "नहीं आंटी, मैं अपनी हूँ।"

उसके इस मासूम जवाब ने उस औरत की आंखें नम कर दीं।

एक रात बहुत ठंडी थी। बारिश भी होने लगी थी। गुड़िया एक बंद दुकान के सामने बैठी थी — उसके शरीर पर एक फटी हुई फ्रॉक थी, और पांवों में कोई चप्पल नहीं थी।

एक आदमी आया, और उसे देखकर बोला —

"अरे ओ बच्ची! यहाँ क्या कर रही है, जाओ कहीं छाँव में बैठो।"

गुड़िया ने चुपचाप जवाब दिया,

"बारिश तो हर जगह बरसती है। मैं किसको कहूं कि छत दे दे?"

उस आदमी ने सिर झुका लिया। वो कुछ बोल नहीं पाया।

गुड़िया की दुनिया बहुत छोटी थी —एक स्टील का कटोरा, एक प्लास्टिक की बोतल, और एक पुरानी गुड़िया जो उसे किसी ने दिया था। कभी-कभी जब कोई बच्चा आइसक्रीम खाता, तो वो देखती रहती। पर वो मांगती नहीं थी — शायद इसलिए कि आदत नहीं थी मांगने की, या शायद इसलिए कि उम्मीदें बहुत पहले मर चुकी थीं। लेकिन जब कोई बिना मांगे कुछ दे देता, तो वो उस चीज को इस तरह संजोती थी जैसे कोई खजाना हो।

किसी ने कभी उसका असली नाम नहीं जाना।

कोई कागज, कोई आधार कार्ड, कोई नाम नहीं था।

वो ‘गुड़िया’ बन गई थी — एक नाम, जो उसकी हालत से मेल खाता था: मिट्टी में पड़ी, टूटी-फूटी, लेकिन फिर भी मुस्कुराती हुई। वो छोटी बच्ची हर दिन सड़कों पर चलती थी, जैसे अपनी ही ज़िंदगी की तलाश कर रही हो —शायद किसी ऐसे चेहरे की, जो उसे पहचाने, जो कहे — "ये मेरी है..."


एक दिन कुछ खास था। नज़रों से नहीं, लेकिन एहसास से।

एक महिला बस स्टैंड पर आई, जिनकी आंखें हर तरफ कुछ ढूंढ रही थीं। वो साफ़-सुथरी थी, एक स्कूल यूनिफॉर्म की आया लग रही थी।

उसका नाम था सरला दीदी।

उसने गुड़िया को देखा, जो एक कोने में बैठी अपने कटोरे में बिस्किट तोड़ रही थी।

सरला दीदी ने पास जाकर पूछा, "बच्ची, तेरा कोई नहीं है?"

गुड़िया ने वही पुराना जवाब दिया: "मैं अपनी हूँ..."लेकिन इस बार उसकी आवाज़ में थोड़ी थकावट थी।

अगले दिन सरला दीदी फिर आईं — इस बार हाथ में एक टिफिन और एक जोड़ी चप्पल लेकर।

गुड़िया थोड़ी चौंकी, थोड़ी डरी भी। कोई बिना वजह इतना प्यार क्यों दे रहा है?

सरला दीदी ने कहा, "चल, खाना खा ले।"

गुड़िया ने धीरे से टिफिन खोला — अंदर आलू की सब्जी और दो गरम रोटियाँ थीं। शायद सालों बाद पहली बार उसने खाना आंसुओं के साथ नहीं, मुस्कान के साथ खाया।

गुड़िया के पास कोई ख्वाब नहीं थे — क्योंकि उसे ख्वाब देखना सिखाया ही नहीं गया था। लेकिन उस दिन सरला दीदी के आने के बाद उसकी आंखों में कुछ बदल गया था —अब वो हर दिन उनकी राह देखने लगी। हर दिन वो सोचती थी —"क्या आज भी वो आएँगी? क्या मैं फिर से अकेली तो नहीं रह जाऊँगी?"

कहते हैं — जब ज़िंदगी बार-बार गिराती है, तो कोई न कोई ऐसा मिल जाता है जो गिरने से पहले थाम लेता है।

गुड़िया की कहानी उसी मोड़ पर आ खड़ी थी।

वो अब भी सड़कों की थी, लेकिन अब वो अकेली नहीं थी। अब उसकी कहानी में सरला दीदी थीं — एक किरन की तरह।

1: "हर दिन की एक उम्मीद"


सरला दीदी अब रोज़ आती थीं। कभी चप्पल लातीं, कभी पुराने कपड़े, कभी हलवा। पर सबसे बड़ी चीज़ जो वो साथ लातीं — थोड़ा-सा समय और भरपूर अपनापन।

गुड़िया अब सुबह जल्दी उठती थी। अपने बाल खुद ही गीले कर के कंघी करती, और जब भी पास की दुकान का कांच देखती — खुद को पहचानने की कोशिश करती। उसे याद ही नहीं था कि आख़िरी बार उसने खुद को इतना साफ-सुथरा कब देखा था।

एक दिन सरला दीदी उसके लिए एक किताब लाईं — उसमें रंग-बिरंगे चित्र थे, जानवरों की कहानियाँ, और बड़े-बड़े अक्षर।गुड़िया ने किताब को ऐसे छुआ जैसे किसी चमत्कार को छू रही हो।

सरला दीदी बोलीं, "अगर तू चाहे, तो मैं तुझे पढ़ना सिखा सकती हूँ..."

गुड़िया ने चुपचाप सिर हिला दिया। अब हर शाम की शुरुआत किताब से होती।

"अ" से "अनार", "ब" से "बच्चा"

"म" से "माँ" —

इस शब्द पर आते ही गुड़िया थोड़ी देर चुप हो जाती।

सरला दीदी समझ जाती थीं। वो बस उसकी पीठ थपथपातीं और कहतीं —"अब से तेरे लिए मैं ही माँ हूँ।"

गुड़िया की हालत को देखकर सरला दीदी ने एक स्थानीय बाल कल्याण संस्था से संपर्क किया। नाम था — "प्रयास आश्रय"।

सरला दीदी ने बड़ी मेहनत से गुड़िया के लिए कागज़ी कार्रवाई पूरी की — क्योंकि उसके पास कोई पहचान नहीं थी, कोई दस्तावेज़ नहीं था, सिर्फ नाम की गुड़िया थी।

लेकिन दिल से सभी संस्था के लोग राज़ी हो गए —क्योंकि कभी-कभी दस्तावेज़ नहीं, इंसानियत काम आती है।

अब गुड़िया के पास एक छत थी —एक बिस्तर था, बगल में और लड़कियाँ थीं, और सामने एक कमरा था जिसे लोग “कक्षा” कहते थे। गुड़िया को जब पहली बार स्कूल यूनिफॉर्म दी गई, तो वो आईने में खुद को निहारती रही। उसने जब सफेद मोज़े पहने, तो बार-बार उन्हें हाथ से छूती — जैसे यकीन न हो कि अब वो फटी चप्पलों वाली बच्ची नहीं रही।

पहले दिन स्कूल में जब घंटी बजी, तो सब बच्चे हँसते हुए कक्षा में भागे — लेकिन गुड़िया दरवाज़े पर ठिठक गई।

सरला दीदी ने प्यार से पुकारा, "जा न बेटा, अब तेरा भी क्लास है।"

गुड़िया मुस्कराई और पहली बार किसी क्लासरूम की दहलीज़ पार की।

गुड़िया पढ़ने में तेज़ नहीं थी, लेकिन सीखने में सबसे आगे थी।हर दिन वो कुछ नया करती — कभी अपने जूते खुद साफ़ करना, कभी पेंसिल को सीधा पकड़ना, कभी गिनती गुनगुनाना। एक दिन जब उसने बोर्ड पर "माँ" लिखा, तो पूरी कक्षा तालियाँ बजाने लगी।

वो मुस्कराई, लेकिन उसकी आँखों में आंसू थे —

शायद उस दिन उसने माँ को महसूस किया था, पहली बार शब्दों में।

आश्रय" गृह ने उसका नाम दर्ज करवाया —गुड़िया शर्मा।सरनेम किसी दस्तावेज़ से नहीं, बल्कि सरला दीदी के नाम से जुड़ा था। अब उसका एक आधार कार्ड था, स्कूल आईडी थी, और एक भविष्य का सपना भी। सब कुछ ठीक चल रहा था, जब एक दिन सरला दीदी को सीने में तेज़ दर्द उठा। उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया।

गुड़िया अस्पताल के बाहर कई घंटों तक बैठी रही। वो बार-बार नर्सों से पूछती, "मेरी माँ ठीक हो जाएंगी न?"

नर्सें चुप रहतीं, क्योंकि उन्हें समझ नहीं आता कि कैसे कहें "तुम्हारी माँ तो शायद असली नहीं, लेकिन प्यार असली है।"

तीन दिन बाद जब सरला दीदी की हालत सुधरी, तो गुड़िया उनकी हथेली पकड़कर रो पड़ी। सरला दीदी ने कहा —

"अब तुम ही मेरी ताकत हो बेटा। मुझे तुम्हारे लिए जीना है।"

"गुड़िया अब शिक्षिका बनना चाहती थी" उसने सोचा कि अगर कोई मुझे अ से अनार तक पढ़ा सकता है, तो मैं भी किसी और को पढ़ा सकती हूँ। अब वो रोज़ छोटे बच्चों को पढ़ाने लगी।

कभी गिनती, कभी कविता, तो कभी सिर्फ़ हँसी। अब उसकी बातों में आत्मविश्वास था, आँखों में डर नहीं था, एक चमक थी।

एक दिन एक छोटी बच्ची ने गुड़िया से पूछा - दीदी, क्या आपको भी कभी कोई छोड़कर गया था?

गुड़िया चुप हो गई। फिर मुस्कुरा कर बोली:

हाँ, पर फिर कोई मुझे मिल गया। और अब मैं कभी किसी को अकेला नहीं छोड़ती।

  उपसंहार: "अब वो सिर्फ़ नाम की गुड़िया नहीं रही" अब वो बस स्टैंड पर कीचड़ में बैठी गुड़िया नहीं थी।

अब वो ख़ुद एक रोशनी का रूप बन चुकी थी। हर उस लड़की के लिए जो ख़ुद को अकेला समझती है, हर उस आँख के लिए जिसमें कोई सपना पल रहा है - गुड़िया एक रोशनी की किरण बन चुकी थी।

  लेखक का नोट:

यह सिर्फ़ एक गुड़िया की कहानी नहीं है, यह एक बदलाव की कहानी है।

एक छोटी बच्ची, जिसे छोड़ दिया गया था, अब दूसरों के लिए सहारा बन रही है।

यह हमें याद दिलाती है कि...कभी-कभी ज़िंदगी फिर से शुरू होती है - जब कोई बिना शर्त प्यार करता है।

  आपसे सवाल:

   क्या आपने कभी किसी ज़रूरतमंद बच्चे की आँखों में सवाल देखे हैं?

   क्या आप किसी की गुड़िया बन सकते हैं?

टिप्पणी करें - और इस कहानी को किसी ऐसे व्यक्ति के साथ साझा करें जो किसी छोटी बच्ची के जीवन में रोशनी ला सके।


और पढ़ने के लिए क्लिक करें

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ