रुचि और अर्जुन अब एक पुराने रेलवे स्टेशन पर पहुँचे थे — एक ऐसा स्टेशन जो कई सालों से बंद पड़ा था।
टूटे-फूटे बेंच, जंग लगे बोर्ड और बिखरी हुई पटरियाँ... चारों ओर वीरानी थी।
"यहाँ क्यों लाए हो?" रुचि ने थकी आवाज में पूछा।
अर्जुन ने चारों ओर देखा और फुसफुसाया,
"यही वो जगह है जहाँ तुम्हारी माँ ने आखिरी सुराग छुपाया था।"
रुचि का दिल जोरों से धड़कने लगा।
माँ के करीब पहुँचने का एहसास... डर और उम्मीद का अजीब सा संगम था।
स्टेशन के एक पुराने वेटिंग रूम में वे घुसे।
दीवार पर अब भी एक टूटा हुआ लॉकर्स का सेट टंगा था।
अर्जुन ने एक लोहे की रॉड से एक लॉकर को तोड़ा — अंदर एक जंग लगी डायरी थी।
रुचि ने कांपते हाथों से उसे खोला।
पहले पन्ने पर माँ की लिखावट में लिखा था:
"अगर तुम यह पढ़ रही हो, तो तुम्हें अब वो सच जानने का हक है, जिसे मैंने अपने सीने में दबा लिया था।"
रुचि की आँखें भर आईं।
"तुम्हें ब्लैक हॉक के असली नेता को ढूँढना है। वो तुम्हारे सबसे करीब है, पर तुम्हें सबसे दूर दिखेगा।"
रुचि ने अर्जुन की तरफ देखा।
"इसका क्या मतलब है?"
अर्जुन गंभीर हो गया।
"मतलब यह कि दुश्मन हमारे बहुत पास है। शायद कोई ऐसा जिसे तुम जानती हो..."
रुचि की यादों में माँ की मुस्कुराती तस्वीरें घूमने लगीं।
क्या उनकी हंसी के पीछे इतना बड़ा दर्द छुपा था?
"मैं माँ को गर्व महसूस कराऊँगी," रुचि ने मन में ठान लिया।
लेकिन तभी, वेटिंग रूम का शीशा अचानक टूटा!
गोलियों की बौछार शुरू हो गई।
"झुको!" अर्जुन चिल्लाया।
रुचि नीचे झुकी और देखा — बाहर वही नकाबपोश दुश्मन आ गए थे।
पर उनके पीछे... एक ऐसा चेहरा दिखा जिसे देख रुचि का खून ठंडा हो गया।
"न... नहीं... ये कैसे हो सकता है?" रुचि फुसफुसाई।
वो चेहरा था — कबीर चाचा का!
उसका बचपन से देखा-पाला मामा जैसा इंसान!
"कबीर चाचा... आप?" रुचि की आवाज टूट गई।
कबीर ने हँसते हुए कहा,
"क्यों नहीं? तुम्हारी माँ ने भी मुझे धोखा दिया था... अब तुम भी वही गलती करोगी?"
रुचि समझ चुकी थी।
खून का खेल अब निजी हो चुका था।
"मैं तुम्हें तुम्हारी माँ के रास्ते पर नहीं चलने दूंगा!" कबीर गुर्राया।
अर्जुन ने फुसफुसाया, "रुचि, भागो! ये अब खेल नहीं रहा।"
लेकिन रुचि ने खुद को रोका।
"नहीं अर्जुन। अब नहीं भागूंगी।"
उसने माँ की डायरी को सीने से लगाया और धीमे से बोली,
"अब सच्चाई को खत्म नहीं होने दूंगी।"
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